नई दिल्ली, 9 मई 2025 — हरियाणा के राज्यपाल बंडारू दत्तात्रेय द्वारा लिखित पुस्तक ‘जनता की कहानी, मेरी आत्मकथा’ के विमोचन अवसर पर भारत के उपराष्ट्रपति ने भावुक और आत्मीय शब्दों में अपने अनुभव साझा किए। यह सिर्फ एक पुस्तक का विमोचन नहीं था, बल्कि एक साधक के संघर्ष, सेवा, और समर्पण की सार्वजनिक स्वीकारोक्ति थी — जिसे उन्होंने अपने शब्दों में इतिहास बना दिया।
अपने संबोधन की शुरुआत उपराष्ट्रपति ने श्रीमती वसंता दत्तात्रेय के तप, त्याग और परिवार के मूल्यों को नमन करते हुए की। उन्होंने कहा कि इस पुस्तक और कार्यक्रम की आत्मा वही हैं। अपने पुराने संबंधों को याद करते हुए उन्होंने दिवंगत पुत्र वैष्णव का उल्लेख किया और कहा कि दुख की उस घड़ी में दो परिवारों का जो संबंध जुड़ा, वह आज भी उनके दिल में जीवित है।
कार्यक्रम में उपस्थित सभी गणमान्य व्यक्तियों का सम्मानपूर्वक उल्लेख करते हुए उपराष्ट्रपति ने अनेक व्यक्तिगत स्मृतियाँ साझा कीं — चाहे वह मनोहर लाल खट्टर के मार्गदर्शन की बात हो, अर्जुन मेघवाल द्वारा पेड़ पर चढ़कर इंटरनेट कनेक्टिविटी के माध्यम से एक महिला की मदद करने की कहानी हो, या फिर राज्यपाल दत्तात्रेय के साथ वर्षों की आत्मीयता से जुड़ी मुलाक़ातें। इन प्रसंगों ने कार्यक्रम को सिर्फ औपचारिक नहीं, बल्कि अत्यंत मानवीय बना दिया।
उन्होंने यह भी बताया कि राज्यपाल दत्तात्रेय न केवल एक कर्मठ राजनीतिक कार्यकर्ता रहे, बल्कि उन्होंने वैचारिक संघर्षों में भी सटीक संवाद से मार्ग प्रशस्त किया। 1984 में नक्सल क्षेत्र में जाकर विचार-विमर्श करना, और इमरजेंसी के दौरान जेल से कूदने जैसी घटनाएं उनकी साहसिकता और प्रतिबद्धता का प्रमाण हैं।
उपराष्ट्रपति ने पुस्तक के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि यह आत्मकथा भारतीय लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, और राष्ट्र सेवा की प्रेरक गाथा है। पुस्तक सिर्फ लेखक की जीवन यात्रा नहीं, बल्कि उस विचारधारा का प्रतिबिंब है जिसमें ‘राष्ट्र सर्वोपरि’ की भावना सर्वोच्च है।
उन्होंने कहा कि इस आत्मकथा को पढ़ते समय पाठक महसूस करेगा कि यह एक साधारण व्यक्ति की असाधारण यात्रा है — जिसमें न केवल राजनीतिक अनुभव हैं, बल्कि मानवीय भावनाओं की गहराई भी है। पुस्तक में प्रयुक्त चित्रों और घटनाओं का चयन इतना सजीव है कि वे अपने आप बोलते हैं।
अपने भाषण के अंत में उपराष्ट्रपति ने यह भी माना कि आत्मकथा लिखना सबसे कठिन कामों में से एक है, क्योंकि यह आत्ममंथन की प्रक्रिया होती है — जहां लेखक को न केवल अपने सफल पक्ष को, बल्कि अपने संघर्षों और विफलताओं को भी ईमानदारी से उकेरना पड़ता है। उन्होंने कहा कि यह पुस्तक लोकतांत्रिक मूल्यों, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और राष्ट्रवाद को समर्पित एक अमूल्य दस्तावेज़ है।
यह आयोजन केवल एक पुस्तक विमोचन नहीं था, यह एक ऐसे जीवन की विजयगाथा थी जो ‘सेवा ही धर्म है’ के मंत्र पर चलता रहा और जिसने अपने जीवन को समाज और राष्ट्र के लिए समर्पित कर दिया।
