रावण की कथा से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि कोई अधर्मी व्यक्ति कितना भी सुन्दर स्वरूप बना ले, स्वयं को कितना भी धार्मिक बता दे, उसपर विश्वास नहीं किया जाना चाहिये। यदि विश्वास करेंगे तो आपका हरण होगा…
अब प्रश्न यह है कि आप पहचानेंगे कैसे? साधु वेश में आया व्यक्ति सचमुच संत है, या कोई रावण, यह कैसे तय होगा? तो इसका बड़ा ही सहज उत्तर है। जो व्यक्ति आपको आपकी लक्ष्मण रेखा पार करने को कहे, यकीन कीजिये वह संत नहीं है। धूर्त है, अधर्मी है। किसी भी तरह आपको आपकी मर्यादा की सीमा से बाहर निकलने की प्रेरणा देने वाला कभी भी आपका शुभचिंतक नहीं हो सकता।
सबके चारों ओर मर्यादा की एक लक्ष्मण रेखा होती है। वह रेखा समाज द्वारा खींची गई हो सकती है, हमारे अपनों द्वारा, हमारे परिवार द्वारा खींची गई हो सकती है, या स्वयं हमारे द्वारा ही खींची गई हो सकती है। आप पुरुष हों या स्त्री, सुरक्षित जीवन जीने के लिए उस रेखा का ध्यान रखना आवश्यक होता है। आप उसके बाहर निकलते ही असुरक्षित हो जाते हैं।
आप श्रीराम की महायात्रा को देखिये, वे जिस भेष में घर से निकलते हैं, चौदह वर्षों के बाद उसी भेष में वापस लौटते हैं। इस बीच उनमें कोई परिवर्तन नहीं आता… धर्म को भेष बदलने की आवश्यकता नहीं होती, अपना नाम बदलने, नाम छुपाने की आवश्यकता नहीं होती। इसकी आवश्यकता अधर्म को ही होती है। हर रावण किसी सीता का हरण करने के लिए पहले अपना भेष ही बदलता है। वह होगा राक्षस, पर स्वयं को बताएगा साधु। तिलक लगा लेगा, कलावा बांध लेगा… उसको पहचानना, उसे स्वयं से दूर भगाना आपका कर्तव्य है।
रावण की बहन थी सूर्पनखा! उसका चरित्र भी वही था जो उसके भाई रावण का था। वह भी श्रीराम का हरण करने ही आयी थी न? उसने भी श्रीराम से मर्यादा की सीमा लांघने को कहा! “अपनी पत्नी को छोड़ कर मुझसे विवाह करो…” यह सीमा से बाहर ले जाने का ही प्रयत्न था। राम दृढ़ थे, सो उन्होंने रेखा नहीं लांघी। स्पष्ट है, राक्षस का प्रेम स्वीकार नहीं तो राक्षसी का भी नहीं। इतनी कट्टरता होनी ही चाहिये।
फिर रावण आया। सूर्पनखा प्रेम दिखा कर ठगने में असफल हुई थी, सो उसने योजना बदली। वह याचक बन कर आया। भिक्षाम देही कहते हुए… लंका का राजा क्षण भर में भिखमंगा बन गया। अधर्मी के गिरने की कोई सीमा नहीं होती, वह अपना हित साधने के लिए सौ बार आपके पैर पकड़ सकता है। पर हमें समझना होगा। कुछ भी हो जाय, उसे उसके लक्ष्य में सफल होने नहीं दिया जा सकता।
लोग कहते हैं कि हर वर्ष रावण का पुतला जलाने की क्या आवश्यकता है। मैं कहता हूं, बिल्कुल आवश्यकता है। बल्कि यह आवश्यकता सदैव रहेगी। क्या अब भेष बदल कर लड़कियों के साथ छल करने वाले रावण नहीं है धरती पर? गृहस्थों की गृहस्थी तबाह करने वाली सूर्पनखाएँ नहीं क्या? सज्जन दिखने वाले पर अपने अधर्मी भाई के लिए लड़ जाने वाले कुम्भकर्णों की संख्या कम हो गयी क्या? जबतक ये तीन चरित्र हैं धरती पर, तबतक हर वर्ष रावण के दहन की आवश्यकता रहेगी।
और हाँ! अंदर के रावण को वो मारें जिनके अंदर हो! हमें इस फर्जीवाड़े की आवश्यकता नहीं।
आप सब को विजयादशमी की ढेरों शुभकामनाएं।
सर्वेश!
गोपालगंज, बिहार।