तुलसी विवाह का आध्यात्मिक महत्व
तुलसी विवाह केवल एक पूजा नहीं, बल्कि भक्त और भगवान के बीच प्रेम, भरोसे और समर्पण का प्रतीक है। यह पर्व देवउठनी एकादशी के बाद मनाया जाता है, जब भगवान विष्णु चार महीने के योग निद्रा से जागते हैं। इसी के साथ विवाह और धार्मिक अनुष्ठानों का शुभ समय प्रारंभ होता है।
वृंदा और जालंधर की पौराणिक कथा
पौराणिक कथा के अनुसार, देवी तुलसी का पूर्व जन्म में नाम वृंदा था। वे असुरराज जालंधर की पतिव्रता पत्नी थीं। उनकी निष्ठा और तप से जालंधर अजेय हो गया था। देवताओं के आग्रह पर भगवान विष्णु ने जालंधर का वध करने के लिए उसका रूप धारण किया। वृंदा को भ्रम हुआ और उनका तप भंग हो गया। परिणामस्वरूप जालंधर युद्ध में मारा गया।
जब वृंदा को सत्य का ज्ञान हुआ, तो वे अत्यंत दुखी होकर विष्णु को शाप देकर स्वयं अग्नि में समा गईं। उनके शरीर से एक दिव्य पौधा उत्पन्न हुआ — जिसे तुलसी के नाम से जाना गया। भगवान विष्णु ने उनके प्रेम और तपस्या के सम्मान में उन्हें वचन दिया कि बिना तुलसी के उनकी कोई पूजा पूर्ण नहीं होगी।
भगवान विष्णु और तुलसी का दिव्य विवाह
भगवान विष्णु ने शालिग्राम स्वरूप में तुलसी से विवाह किया, और तभी से हर वर्ष तुलसी विवाह का पर्व मनाया जाता है। इस दिन घरों और मंदिरों में तुलसी और शालिग्राम का विधिवत विवाह कराया जाता है, जिसमें मंगल गीत, भजन और आरती का आयोजन होता है।
पूजा विधि और महत्व
तुलसी विवाह में तुलसी के पौधे को दुल्हन की तरह सजाया जाता है। शालिग्राम को दूल्हे के रूप में रखकर विवाह विधि सम्पन्न की जाती है। पूजा में रोली, हल्दी, चावल, दीपक, नैवेद्य और पुष्पों का विशेष महत्व होता है। भक्त इस अवसर पर व्रत रखते हैं और परिवार की समृद्धि के लिए प्रार्थना करते हैं।
देवउठनी एकादशी से जुड़ा महत्व
देवउठनी एकादशी और तुलसी विवाह दोनों पर्व एक-दूसरे से जुड़े हैं। माना जाता है कि जब भगवान विष्णु योग निद्रा से जागते हैं, तब तुलसी विवाह से सृष्टि में पुनः शुभ कार्यों की शुरुआत होती है।
यह पर्व न केवल धार्मिक दृष्टि से, बल्कि सामाजिक रूप से भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह भक्ति, प्रेम और शुद्धता का संदेश देता है।
